इस डिजिटल दुनिया में जब बच्चों की परवरिश की बात आती है, तो माता-पिता के मन में जो सवाल सबसे पहले आता है, वह है कि “ ___ साल के बच्चे के लिए कितना स्क्रीन समय सही रहता है?” यह सवाल इसलिए आता है, क्योंकि हम समझते हैं कि टेक्नोलॉजी का उपयोग करने वाले बच्चों के लिए कुछ सीमाएँ होनी चाहिए. यही बात उन सभी एक्टिविटी के लिए भी लागू होती है, जो जीवन के अन्य महत्वपूर्ण चीज़ों को प्रभावित करती हैं. हालाँकि, अगर आप बच्चों में अच्छी डिजिटल आदतें पैदा करना चाहते हैं, तो सीमाएँ तय करने के लिए मुख्य रूप से घड़ी के काँटों पर निर्भर रहना ही सबसे अच्छा तरीका नहीं है.
कोई बच्चा हर दिन कितनी देर स्क्रीन देखेगा, इसके लिए एक सीमा तय कर देने से कुछ चुनौतियाँ भी पैदा हो जाती हैं. पहली बात तो यह है कि कितने समय तक स्क्रीन को देखना ठीक रहता है, इसके लिए जो रिसर्च हुआ वह निष्क्रिय रूप से TV देखने पर आधारित है (उस वक्त तक इंटरनेट आया भी नहीं था). TV देखना, आज के दौर में बच्चों द्वारा की जाने वाली कई तरह की डिजिटल एक्टिविटी से बहुत अलग है. मगर तकनीक के उपयोग को मॉडरेट करने हेतु समय-सीमा तय करने में सबसे बड़ी समस्या यह है कि इससे यह धारणा बनती है कि बच्चे सभी डिजिटल एक्टिविटी को एक नज़र से देखने लगते हैं. लेकिन इसमें कोई सच्चाई नहीं है! चलिए दो डिजिटल एक्टिविटी पर नज़र डालते हैं; एक दादा-दादी के साथ वीडियो चैट पर बात करना और दूसरी, जुआ किस्म का कोई गेम बार-बार खेलना. दोनों एक्टिविटी किसी डिवाइस (स्क्रीन वाले) पर होती हैं, लेकिन हर एक्टिविटी को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता. जब हम डिवाइस के उपयोग को स्क्रीन देखने के समय के हिसाब से मॉडरेट करते हैं, तो हम युवाओं को बताते हैं कि तकनीक का उपयोग बाइनरी है (चाहे उसकी परमिशन हो या नहीं). इससे बच्चों को यह लगने लगता है कि सभी डिजिटल एक्टिविटी की अहमियत एक जैसी होती है. इससे एक अहम स्किल नहीं पनप पाता है कि हम यह कैसे तय करें कि कौन-सी डिजिटल एक्टिविटी बेहतर है और हमें किन पर ज़्यादा समय देना चाहिए.
अगर अपने परिवारों में तकनीक के उपयोग को सीमित करने के लिए स्क्रीन देखने के समय का उपयोग करने में हमारी दिलचस्पी नहीं है, तो तकनीक के उपयोग को कंट्रोल करने के लिए इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है? स्क्रीन देखने के समय के लिए एक सख्त समय-सीमा तय करने के बजाय, हमें संतुलन बनाने के तरीके के बारे में बात करनी चाहिए. असल ज़िंदगी में हम अक्सर यही तरीका अपनाते हैं. हम यह बताते हैं कि मानसिक और शारीरिक रूप से सेहतमंद लोग अपने दोस्तों और परिवार के साथ व खुद के साथ किस तरह संतुलन बनाकर समय बिताते हैं. उन्हें कसरत और आराम के बीच संतुलन बनाने का तरीका पता है. वे अपने काम भी गंभीरता से करते हैं और खेल के दौरान पूरी मस्ती करते हैं.
ज़्यादातर कामों की अहमियत इस बात को ध्यान में रखकर तय होती है कि उनका कामों पर किस तरह असर पड़ता है. कसरत करना अच्छी बात है, लेकिन ऐसा न हो कि कसरत के चक्कर में हम अपना होम-वर्क पूरा न कर पाएँ या परिवार और दोस्तों के साथ समय न बिताएँ. आराम करना भी अच्छी बात है, लेकिन ज़्यादा सोना, वह भी नियमित रूप से, नुकसानदेह हो सकता है. इससे हमारे काम करने की क्षमता और मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है. कल्पना करना अच्छी बात है, लेकिन कल्पना को असल ज़िंदगी में मिलाकर उसे झूठ में बदल देना ठीक नहीं है.
रोज़मर्रा की ज़रूरतों के हिसाब से संतुलन का रूप बदल सकता है. अगर कल आपको विज्ञान का कोई बड़ा प्रोजेक्ट जमा करना है, तो आज का पूरा दिन साइकिल दौड़ाने में निकाल देना कतई सही नहीं होगा. अगर आपका कोई बड़ा क्रिकेट मैच है, तो उससे एक दिन पहले अभ्यास करने के बजाय पूरे दिन पढ़ते हुए गुज़ार देना भी ठीक नहीं. हालाँकि, किसी और दिन पर सिर्फ़ पढ़ाई करना ही सबसे अच्छा विकल्प हो सकता है. माता-पिता के रूप में, हमें उन चीज़ों पर ध्यान देना चाहिए जिनसे पता चलता है कि बच्चों का संतुलन बिगड़ रहा है. अपनी डिजिटल दुनिया में संतुलन रखना भी उतना ही ज़रूरी है. हमें यह देखना होगा कि जैसे हम अपने बच्चों को असल ज़िंदगी में संतुलित करने के लिए तत्पर रहते हैं, वैसे ही डिजिटल रूप से संतुलन बनाए रखने में भी उनकी मदद करें. आगे बताए गए तीन तरीके कारगर हो सकते हैं.
अपने बच्चों को असल और डिजिटल दुनिया के बीच संतुलन बनाना सिखाएँ, ताकि वे भविष्य में सफलता के साथ आगे बढ़ सकें. हम चाहते हैं कि उन्हें यह मालूम हो कि किसी एक्टिविटी पर कितना समय बिताना चाहिए. ऐसा उन्हें किसी टाइमर की मदद से नहीं, बल्कि अपनी खुद की इच्छा से करना चाहिए.